Sunday, January 24, 2010

गोलाकोट-गूडर: सांस्कृतिक विरासत

तो आज हम जानते है गोलाकोट-गूडरके बारे में चलचित्रों के लिए यहाँ क्लिक करे

गोलाकोट-गूडर स्थान जिला शिवपुरी (मध्य प्रदेश) में खानिआघान से १८ किमी की दूरी पर है यह स्थान प्राचीन भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को आज भी संजोये हुए है और उपेक्षित है इस स्थान को देखने के बाद कोई शंका नहीं रह जाती कि, हमारी कला और विरासत गाँव गाँव में थी, जिसका जिम्मा भी गाँव वाले ही उठाते थे और अब भी उठाते है चाहे वो किसी भी धर्मं की क्यों न हो

गूडर पहुचने से कुछ पहले ही एक दोराहा सा आता है, जहाँ सड़क किनारे ही एक अहाते में तीन खंडित खडगासन तीर्थंकर प्रतिमाएं नज़र आ जाती है पास ही एक ग्रामीण का घर है, जो स्वप्रेरित होकर इस अहाते की देखभाल करता है प्रतिमाओं की खंडित अवस्था देखकर मन दुखी हो जाता है किन्तु हज़ार सालो से खुले आसमान के तले खड़ी रहकर भी जो मिट नहीं पायी, ग्रामीणों का समर्थन और उनकी दिनचर्या में शामिल है यह देखकर कुछ संतोष होता है

इस दोराहे से एक रास्ता गूडर गाँव की और तथा दूसरा रास्ता पर्वतमाला की और जाता है जहाँ गोलाकोट की पहाड़ी भी है इस दोराहे से गोलाकोट की पहाड़ी १ किमी है जहाँ से पहाड़ी की चढाई प्रारंभ होती है सीढियां भी बनी है और एक कच्चा उबड़ खाबड़ रास्ता जो जीप के जाने लायक है, बना है अत्यंत रमणीक प्राकृतिक वातावरण में पहाडी पर स्थित गोलाकोट क्षेत्र में एक परिसर है जहाँ एक भग्न मंदिर तथा एक प्राचीन मंदिर है समीप ही एक वेदी का नवीन चैत्य भी बना है यहाँ कई प्राचीन और खंडित मूर्तियाँ भी है जो कला की द्रष्टि से महत्वपूर्ण है, परन्तु अतीत की दुर्घटनाओं और वर्तमान दुर्दशा को स्वयं बयान करती है इसके अलावा भी यदि मूर्ती चोरों ने लालच न दिखाया होता तो ये स्थान आज और भी अधिक वैभवशाली होता कुछ वर्षो पूर्व यहाँ कोई देखभाल नहीं होने से मूर्तिचोरों ने ३८ प्रतिमाओं के सर काटकर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में बेच दिया था यहाँ कुछ मूर्तियाँ तो इतनी प्राचीन है कि उनमे तीर्थंकर महावीर का भी जिक्र नहीं है जबकि उनके पूर्ववर्ती २३ वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी मुनि अवस्था में दिखाए गए है हो सकता है ये मूर्तियाँ महावीर स्वामी के बाद कि हो किन्तु आज तीर्थंकर पार्श्व कि मूर्ती कहीं भी मुनि अवस्था में नहीं है, इस द्रष्टि से ये और अधिक अनूठी और ऐतिहासिक हो जाती है पहाडी के दूसरी पार घना जंगल है, पहाड़ियां है और एक बावडी भी

पुनः दोराहे पर हम गूडर गाँव की और जाते है जहाँ एक और ऐतिहासिक मंदिर है, यहाँ प्रवेश करते ही शांति मिलती है और लाल पाषाण का सुंदर कलात्मक मानस्तंभ लौह स्तम्भ सा आभास देता है यहाँ भी एक ओर खंडित मूर्तिया रखी है जो न जाने कितनी प्राचीन है किन्तु यहाँ कुछ मूर्तियाँ अच्छी अवस्था में भी है और अब भी ग्रामीणों द्वारा पूजी जा रही है उनमे तीर्थंकर अभिनन्दन की मूर्ती विशेष है

सारांश में कहूं तो हमें यहाँ आकर जो अनुभूति हुई वो अविस्मरणीय रहेगी

Saturday, January 9, 2010

देवगढ की समृद्ध मूर्तिकला

तो आइये आज हम जाने देवगढ के बारे में | जैसा नाम वैसा गुण, यहाँ आकर एकाएक विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा स्थान, ऐसी समृद्ध मूर्ती और स्थापत्य कला मानव की देन है | वास्तव में यह देवो कि भूमि ही प्रतीत होती है |
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देवगढ, जिला ललितपुर (उत्तर प्रदेश) में ललितपुर से ३२ किमी की दूरी पर बेतवा नदी के दायें किनारे हरी - भरी सुरम्य घाटियों के मध्य स्थित है | प्राकृतिक रूप से जितना यह स्थान सुंदर है, इसे और अधिक सुंदर बनाने का श्रेय यहाँ की समृद्ध कला को जाता है | यह स्थान ७ वी शताब्दी से लेकर 1७ वी शताब्दी तक मूर्तिकला और निर्माण कला का मुख्य केंद्र रहा | वैसे ही जैसे नालंदा शिक्षा के लिए प्रसिद्द था, देवगढ कला का (विशेषतया मूर्ती निर्माण कला और स्थापत्य कला का) प्रमुख केंद्र था | गुप्त वंश, चंदेल वंश, तोमर वंश, प्रतिहार वंश और चौहान वंशी राजाओं ने भी सदैव इस स्थान की रक्षा की और इसकी समृधि में योगदान दिया | यहीं कारण है कि हमारे पूर्वजों के कला प्रेम और कला संसार का तीर्थ बने इस स्थान पर हमारा मन स्वयं ही श्रदा से भर उठता है |

यहाँ का मुख्य आकर्षण देवगढ का किला है जो पहाड़ी पर है | वहां जैन धर्मं से सम्बंधित ४१ मंदिर विद्यमान है|
पहाड़ी पर विष्णु अवतारों से सम्बद्ध कुछ गुफाये भी है | गुप्त कालीन दशावतार मदिर देवगढ की शान है और भारत के प्राचीन विद्यमान मंदिरों में से एक है | हालाँकि यह जर्जर अवस्था में है परन्तु इससे यहाँ की कला का महत्व कम नहीं हो जाता
इसके अलावा संग्रहालय में कई मूर्तिया और पुरातत्व महत्व की वस्तुए है |

जैन और हिन्दू धर्म में वर्णित देवी देवताओं में शायद ही कोई होगा जिसकी मूर्ती यहाँ नहीं हो | मूर्ती कला में किये गए प्रयोगों के कारण इस स्थान पर ऐसी कई मूर्तियाँ है, जो संसार में और कहीं नहीं मिलती है | देवगढ की कला पर तो कई बुद्धिजीवियों ने अपनी रिसर्च भी की है जिनमे कई विदेशी भी शामिल है | यहाँ का शांतिनाथ मंदिर और दशावतार मंदिर देखकर खजुराहों के मंदिरों की याद आ जाती है जो वस्तुतः इसके बाद में बने थे | परन्तु दोनों ही स्थानों में अपनी अपनी विशेषताए है | कई समानताये है, कई असमानताये भी है | खजुराहों की मूर्तिकला सांसारिक है वही यहाँ की मूर्तिकला अध्यात्मिक और अद्वितीय है |

नाग्शायी विष्णु, तीर्थंकर नेमिनाथ की स्तुति करते कृष्ण और बलराम, तेईस पार्श्वनाथ, माता त्रिशला और तेईस तीर्थंकर, देवी अम्बिका यक्षी के रूप में बच्चे को दूध पिलाती हुई, चक्रेश्वरी देवी और गोमुख यक्ष की मूर्तियाँ , तीर्थंकर आदिनाथ की जटा युक्त प्रतिमाये, आचार्यों और उपाध्यायों की मूर्तिया, अनूठे मानस्तंभ, दीवारों पर खोदी गयी मूर्तियों का संग्रह आदि कई ऐसी मूर्तियाँ एवं रचनाये है जो मात्र यहीं पाए गए है |
मंदिर नंबर ३० जो तीर्थंकर शांतिनाथ को समर्पित है अत्यंत अतिशयकारी, महत्त्वपूर्ण, बड़ा और प्रसिद्ध है |

कुल मिलाकर यदि देवगढ को देवो की भूमि कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी| हम सबको एक बार वहां ज़रूर जाना चाहिए |

अगली बार मिलते है किसी और स्थान को लेकर | जुड़े रहिएगा |