तो आइये आज हम जाने देवगढ के बारे में | जैसा नाम वैसा गुण, यहाँ आकर एकाएक विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा स्थान, ऐसी समृद्ध मूर्ती और स्थापत्य कला मानव की देन है | वास्तव में यह देवो कि भूमि ही प्रतीत होती है |
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देवगढ, जिला ललितपुर (उत्तर प्रदेश) में ललितपुर से ३२ किमी की दूरी पर बेतवा नदी के दायें किनारे हरी - भरी सुरम्य घाटियों के मध्य स्थित है | प्राकृतिक रूप से जितना यह स्थान सुंदर है, इसे और अधिक सुंदर बनाने का श्रेय यहाँ की समृद्ध कला को जाता है | यह स्थान ७ वी शताब्दी से लेकर 1७ वी शताब्दी तक मूर्तिकला और निर्माण कला का मुख्य केंद्र रहा | वैसे ही जैसे नालंदा शिक्षा के लिए प्रसिद्द था, देवगढ कला का (विशेषतया मूर्ती निर्माण कला और स्थापत्य कला का) प्रमुख केंद्र था | गुप्त वंश, चंदेल वंश, तोमर वंश, प्रतिहार वंश और चौहान वंशी राजाओं ने भी सदैव इस स्थान की रक्षा की और इसकी समृधि में योगदान दिया | यहीं कारण है कि हमारे पूर्वजों के कला प्रेम और कला संसार का तीर्थ बने इस स्थान पर हमारा मन स्वयं ही श्रदा से भर उठता है |
यहाँ का मुख्य आकर्षण देवगढ का किला है जो पहाड़ी पर है | वहां जैन धर्मं से सम्बंधित ४१ मंदिर विद्यमान है|
पहाड़ी पर विष्णु अवतारों से सम्बद्ध कुछ गुफाये भी है | गुप्त कालीन दशावतार मदिर देवगढ की शान है और भारत के प्राचीन विद्यमान मंदिरों में से एक है | हालाँकि यह जर्जर अवस्था में है परन्तु इससे यहाँ की कला का महत्व कम नहीं हो जाता
इसके अलावा संग्रहालय में कई मूर्तिया और पुरातत्व महत्व की वस्तुए है |
जैन और हिन्दू धर्म में वर्णित देवी देवताओं में शायद ही कोई होगा जिसकी मूर्ती यहाँ नहीं हो | मूर्ती कला में किये गए प्रयोगों के कारण इस स्थान पर ऐसी कई मूर्तियाँ है, जो संसार में और कहीं नहीं मिलती है | देवगढ की कला पर तो कई बुद्धिजीवियों ने अपनी रिसर्च भी की है जिनमे कई विदेशी भी शामिल है | यहाँ का शांतिनाथ मंदिर और दशावतार मंदिर देखकर खजुराहों के मंदिरों की याद आ जाती है जो वस्तुतः इसके बाद में बने थे | परन्तु दोनों ही स्थानों में अपनी अपनी विशेषताए है | कई समानताये है, कई असमानताये भी है | खजुराहों की मूर्तिकला सांसारिक है वही यहाँ की मूर्तिकला अध्यात्मिक और अद्वितीय है |
नाग्शायी विष्णु, तीर्थंकर नेमिनाथ की स्तुति करते कृष्ण और बलराम, तेईस पार्श्वनाथ, माता त्रिशला और तेईस तीर्थंकर, देवी अम्बिका यक्षी के रूप में बच्चे को दूध पिलाती हुई, चक्रेश्वरी देवी और गोमुख यक्ष की मूर्तियाँ , तीर्थंकर आदिनाथ की जटा युक्त प्रतिमाये, आचार्यों और उपाध्यायों की मूर्तिया, अनूठे मानस्तंभ, दीवारों पर खोदी गयी मूर्तियों का संग्रह आदि कई ऐसी मूर्तियाँ एवं रचनाये है जो मात्र यहीं पाए गए है |
मंदिर नंबर ३० जो तीर्थंकर शांतिनाथ को समर्पित है अत्यंत अतिशयकारी, महत्त्वपूर्ण, बड़ा और प्रसिद्ध है |
कुल मिलाकर यदि देवगढ को देवो की भूमि कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी| हम सबको एक बार वहां ज़रूर जाना चाहिए |
अगली बार मिलते है किसी और स्थान को लेकर | जुड़े रहिएगा |
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