तो आज हम जानते है गोलाकोट-गूडरके बारे में चलचित्रों के लिए यहाँ क्लिक करे
गोलाकोट-गूडर स्थान जिला शिवपुरी (मध्य प्रदेश) में खानिआघान से १८ किमी की दूरी पर है यह स्थान प्राचीन भारतीय कला और सांस्कृतिक विरासत को आज भी संजोये हुए है और उपेक्षित है इस स्थान को देखने के बाद कोई शंका नहीं रह जाती कि, हमारी कला और विरासत गाँव गाँव में थी, जिसका जिम्मा भी गाँव वाले ही उठाते थे और अब भी उठाते है चाहे वो किसी भी धर्मं की क्यों न हो
गूडर पहुचने से कुछ पहले ही एक दोराहा सा आता है, जहाँ सड़क किनारे ही एक अहाते में तीन खंडित खडगासन तीर्थंकर प्रतिमाएं नज़र आ जाती है पास ही एक ग्रामीण का घर है, जो स्वप्रेरित होकर इस अहाते की देखभाल करता है प्रतिमाओं की खंडित अवस्था देखकर मन दुखी हो जाता है किन्तु हज़ार सालो से खुले आसमान के तले खड़ी रहकर भी जो मिट नहीं पायी, ग्रामीणों का समर्थन और उनकी दिनचर्या में शामिल है यह देखकर कुछ संतोष होता है
इस दोराहे से एक रास्ता गूडर गाँव की और तथा दूसरा रास्ता पर्वतमाला की और जाता है जहाँ गोलाकोट की पहाड़ी भी है इस दोराहे से गोलाकोट की पहाड़ी १ किमी है जहाँ से पहाड़ी की चढाई प्रारंभ होती है सीढियां भी बनी है और एक कच्चा उबड़ खाबड़ रास्ता जो जीप के जाने लायक है, बना है अत्यंत रमणीक प्राकृतिक वातावरण में पहाडी पर स्थित गोलाकोट क्षेत्र में एक परिसर है जहाँ एक भग्न मंदिर तथा एक प्राचीन मंदिर है समीप ही एक वेदी का नवीन चैत्य भी बना है यहाँ कई प्राचीन और खंडित मूर्तियाँ भी है जो कला की द्रष्टि से महत्वपूर्ण है, परन्तु अतीत की दुर्घटनाओं और वर्तमान दुर्दशा को स्वयं बयान करती है इसके अलावा भी यदि मूर्ती चोरों ने लालच न दिखाया होता तो ये स्थान आज और भी अधिक वैभवशाली होता कुछ वर्षो पूर्व यहाँ कोई देखभाल नहीं होने से मूर्तिचोरों ने ३८ प्रतिमाओं के सर काटकर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में बेच दिया था यहाँ कुछ मूर्तियाँ तो इतनी प्राचीन है कि उनमे तीर्थंकर महावीर का भी जिक्र नहीं है जबकि उनके पूर्ववर्ती २३ वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी मुनि अवस्था में दिखाए गए है हो सकता है ये मूर्तियाँ महावीर स्वामी के बाद कि हो किन्तु आज तीर्थंकर पार्श्व कि मूर्ती कहीं भी मुनि अवस्था में नहीं है, इस द्रष्टि से ये और अधिक अनूठी और ऐतिहासिक हो जाती है पहाडी के दूसरी पार घना जंगल है, पहाड़ियां है और एक बावडी भी
पुनः दोराहे पर हम गूडर गाँव की और जाते है जहाँ एक और ऐतिहासिक मंदिर है, यहाँ प्रवेश करते ही शांति मिलती है और लाल पाषाण का सुंदर कलात्मक मानस्तंभ लौह स्तम्भ सा आभास देता है यहाँ भी एक ओर खंडित मूर्तिया रखी है जो न जाने कितनी प्राचीन है किन्तु यहाँ कुछ मूर्तियाँ अच्छी अवस्था में भी है और अब भी ग्रामीणों द्वारा पूजी जा रही है उनमे तीर्थंकर अभिनन्दन की मूर्ती विशेष है
सारांश में कहूं तो हमें यहाँ आकर जो अनुभूति हुई वो अविस्मरणीय रहेगी
Me at Corners
The blog is all about my travel for uncovering lost or abandoned heritages, jain places. It is a journey. People know very less about old heritage places and their history. Read this blog to know more about ancient heritages of india.
Sunday, January 24, 2010
Saturday, January 9, 2010
देवगढ की समृद्ध मूर्तिकला
तो आइये आज हम जाने देवगढ के बारे में | जैसा नाम वैसा गुण, यहाँ आकर एकाएक विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा स्थान, ऐसी समृद्ध मूर्ती और स्थापत्य कला मानव की देन है | वास्तव में यह देवो कि भूमि ही प्रतीत होती है |
चलचित्रों के लिए यहाँ क्लिक करे और यहाँ क्लिक करे |
देवगढ, जिला ललितपुर (उत्तर प्रदेश) में ललितपुर से ३२ किमी की दूरी पर बेतवा नदी के दायें किनारे हरी - भरी सुरम्य घाटियों के मध्य स्थित है | प्राकृतिक रूप से जितना यह स्थान सुंदर है, इसे और अधिक सुंदर बनाने का श्रेय यहाँ की समृद्ध कला को जाता है | यह स्थान ७ वी शताब्दी से लेकर 1७ वी शताब्दी तक मूर्तिकला और निर्माण कला का मुख्य केंद्र रहा | वैसे ही जैसे नालंदा शिक्षा के लिए प्रसिद्द था, देवगढ कला का (विशेषतया मूर्ती निर्माण कला और स्थापत्य कला का) प्रमुख केंद्र था | गुप्त वंश, चंदेल वंश, तोमर वंश, प्रतिहार वंश और चौहान वंशी राजाओं ने भी सदैव इस स्थान की रक्षा की और इसकी समृधि में योगदान दिया | यहीं कारण है कि हमारे पूर्वजों के कला प्रेम और कला संसार का तीर्थ बने इस स्थान पर हमारा मन स्वयं ही श्रदा से भर उठता है |
यहाँ का मुख्य आकर्षण देवगढ का किला है जो पहाड़ी पर है | वहां जैन धर्मं से सम्बंधित ४१ मंदिर विद्यमान है|
पहाड़ी पर विष्णु अवतारों से सम्बद्ध कुछ गुफाये भी है | गुप्त कालीन दशावतार मदिर देवगढ की शान है और भारत के प्राचीन विद्यमान मंदिरों में से एक है | हालाँकि यह जर्जर अवस्था में है परन्तु इससे यहाँ की कला का महत्व कम नहीं हो जाता
इसके अलावा संग्रहालय में कई मूर्तिया और पुरातत्व महत्व की वस्तुए है |
जैन और हिन्दू धर्म में वर्णित देवी देवताओं में शायद ही कोई होगा जिसकी मूर्ती यहाँ नहीं हो | मूर्ती कला में किये गए प्रयोगों के कारण इस स्थान पर ऐसी कई मूर्तियाँ है, जो संसार में और कहीं नहीं मिलती है | देवगढ की कला पर तो कई बुद्धिजीवियों ने अपनी रिसर्च भी की है जिनमे कई विदेशी भी शामिल है | यहाँ का शांतिनाथ मंदिर और दशावतार मंदिर देखकर खजुराहों के मंदिरों की याद आ जाती है जो वस्तुतः इसके बाद में बने थे | परन्तु दोनों ही स्थानों में अपनी अपनी विशेषताए है | कई समानताये है, कई असमानताये भी है | खजुराहों की मूर्तिकला सांसारिक है वही यहाँ की मूर्तिकला अध्यात्मिक और अद्वितीय है |
नाग्शायी विष्णु, तीर्थंकर नेमिनाथ की स्तुति करते कृष्ण और बलराम, तेईस पार्श्वनाथ, माता त्रिशला और तेईस तीर्थंकर, देवी अम्बिका यक्षी के रूप में बच्चे को दूध पिलाती हुई, चक्रेश्वरी देवी और गोमुख यक्ष की मूर्तियाँ , तीर्थंकर आदिनाथ की जटा युक्त प्रतिमाये, आचार्यों और उपाध्यायों की मूर्तिया, अनूठे मानस्तंभ, दीवारों पर खोदी गयी मूर्तियों का संग्रह आदि कई ऐसी मूर्तियाँ एवं रचनाये है जो मात्र यहीं पाए गए है |
मंदिर नंबर ३० जो तीर्थंकर शांतिनाथ को समर्पित है अत्यंत अतिशयकारी, महत्त्वपूर्ण, बड़ा और प्रसिद्ध है |
कुल मिलाकर यदि देवगढ को देवो की भूमि कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी| हम सबको एक बार वहां ज़रूर जाना चाहिए |
अगली बार मिलते है किसी और स्थान को लेकर | जुड़े रहिएगा |
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देवगढ, जिला ललितपुर (उत्तर प्रदेश) में ललितपुर से ३२ किमी की दूरी पर बेतवा नदी के दायें किनारे हरी - भरी सुरम्य घाटियों के मध्य स्थित है | प्राकृतिक रूप से जितना यह स्थान सुंदर है, इसे और अधिक सुंदर बनाने का श्रेय यहाँ की समृद्ध कला को जाता है | यह स्थान ७ वी शताब्दी से लेकर 1७ वी शताब्दी तक मूर्तिकला और निर्माण कला का मुख्य केंद्र रहा | वैसे ही जैसे नालंदा शिक्षा के लिए प्रसिद्द था, देवगढ कला का (विशेषतया मूर्ती निर्माण कला और स्थापत्य कला का) प्रमुख केंद्र था | गुप्त वंश, चंदेल वंश, तोमर वंश, प्रतिहार वंश और चौहान वंशी राजाओं ने भी सदैव इस स्थान की रक्षा की और इसकी समृधि में योगदान दिया | यहीं कारण है कि हमारे पूर्वजों के कला प्रेम और कला संसार का तीर्थ बने इस स्थान पर हमारा मन स्वयं ही श्रदा से भर उठता है |
यहाँ का मुख्य आकर्षण देवगढ का किला है जो पहाड़ी पर है | वहां जैन धर्मं से सम्बंधित ४१ मंदिर विद्यमान है|
पहाड़ी पर विष्णु अवतारों से सम्बद्ध कुछ गुफाये भी है | गुप्त कालीन दशावतार मदिर देवगढ की शान है और भारत के प्राचीन विद्यमान मंदिरों में से एक है | हालाँकि यह जर्जर अवस्था में है परन्तु इससे यहाँ की कला का महत्व कम नहीं हो जाता
इसके अलावा संग्रहालय में कई मूर्तिया और पुरातत्व महत्व की वस्तुए है |
जैन और हिन्दू धर्म में वर्णित देवी देवताओं में शायद ही कोई होगा जिसकी मूर्ती यहाँ नहीं हो | मूर्ती कला में किये गए प्रयोगों के कारण इस स्थान पर ऐसी कई मूर्तियाँ है, जो संसार में और कहीं नहीं मिलती है | देवगढ की कला पर तो कई बुद्धिजीवियों ने अपनी रिसर्च भी की है जिनमे कई विदेशी भी शामिल है | यहाँ का शांतिनाथ मंदिर और दशावतार मंदिर देखकर खजुराहों के मंदिरों की याद आ जाती है जो वस्तुतः इसके बाद में बने थे | परन्तु दोनों ही स्थानों में अपनी अपनी विशेषताए है | कई समानताये है, कई असमानताये भी है | खजुराहों की मूर्तिकला सांसारिक है वही यहाँ की मूर्तिकला अध्यात्मिक और अद्वितीय है |
नाग्शायी विष्णु, तीर्थंकर नेमिनाथ की स्तुति करते कृष्ण और बलराम, तेईस पार्श्वनाथ, माता त्रिशला और तेईस तीर्थंकर, देवी अम्बिका यक्षी के रूप में बच्चे को दूध पिलाती हुई, चक्रेश्वरी देवी और गोमुख यक्ष की मूर्तियाँ , तीर्थंकर आदिनाथ की जटा युक्त प्रतिमाये, आचार्यों और उपाध्यायों की मूर्तिया, अनूठे मानस्तंभ, दीवारों पर खोदी गयी मूर्तियों का संग्रह आदि कई ऐसी मूर्तियाँ एवं रचनाये है जो मात्र यहीं पाए गए है |
मंदिर नंबर ३० जो तीर्थंकर शांतिनाथ को समर्पित है अत्यंत अतिशयकारी, महत्त्वपूर्ण, बड़ा और प्रसिद्ध है |
कुल मिलाकर यदि देवगढ को देवो की भूमि कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी| हम सबको एक बार वहां ज़रूर जाना चाहिए |
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Sunday, December 27, 2009
पचराई के प्राचीन मंदिर और मूर्तिकला
तो आज हम जानते है पचराई के बारे में| चलचित्रों के लिए यहाँ क्लिक करे |
पचराई के मंदिर १००० वर्षों से भी अधिक प्राचीन माने जाते है | यहाँ कुल २८ मंदिर है जो जैन तीर्थंकरों को समर्पित है | ये सारे मंदिर एक टीले पर एक अहाते में स्थित है, जहाँ एक बावडी भी है | यहाँ की मुख्य विशेषता मंदिरों में स्थित प्राचीन, सुंदर तथा हीरे की पालिश युक्त प्रतिमाये है, जो किसी समय अखंड एवं अत्यंत आकर्षक थी, किन्तु समय चक्र के कारण और मूर्ती आक्रमणकारियों की क्रूरता के कारण आज ये अवशेष मात्र रह गयी है | अधिकाँश मूर्तिया खंडित कर दी गयी थी, जिन्हें कुछ संगठनों की सहायता से जीर्नोधारित किया जा रहा है |
हालाकिं कई प्रतिमाये तो आज भी अत्यंत चमकदार तथा मनोज्ञ है | ऐसी ही तीन प्रतिमाये जो शान्ति-कुन्थु-अरह तीर्थंकरों को समर्पित है, एक मंदिर में विराजमान है अत्यंत अतिशयकारी है और १३ फीट लम्बाई की है | माना जाता है की इन प्रतिमाओं की स्थापना में पाडाशाह नामक व्यापारी का योगदान था, जिसे पचराई से कुछ दूरी पर स्थित एक तालाब से पारस पत्थर की प्राप्ति हुई थी और उसका स्वप्न सत्य हुआ था | वह रांगे का व्यापार करता था और इसके लदान के लिए पाड़ों का उपयोग करता था, इसीलिये उसका नाम पाडाशाह पड़ा | उसने इस पारस पत्थर का उपयोग कर बुंदेलखंड क्षेत्र में कई मंदिरों का निर्माण कराया था और तत्कालीन चंदेल, तोमर वंशी राजाओं ने भी अनुमोदना की थी |
प्राकृतिक रूप से पचराई बहुत सुंदर स्थान है, जो कई तालाबों से घिरा है और पठारी भाग पर अवस्थित है | यह शिवपुरी जिला (म.प्र) में खानियाघाना नामक स्थान से १८ किमी है |
पचराई के मंदिर १००० वर्षों से भी अधिक प्राचीन माने जाते है | यहाँ कुल २८ मंदिर है जो जैन तीर्थंकरों को समर्पित है | ये सारे मंदिर एक टीले पर एक अहाते में स्थित है, जहाँ एक बावडी भी है | यहाँ की मुख्य विशेषता मंदिरों में स्थित प्राचीन, सुंदर तथा हीरे की पालिश युक्त प्रतिमाये है, जो किसी समय अखंड एवं अत्यंत आकर्षक थी, किन्तु समय चक्र के कारण और मूर्ती आक्रमणकारियों की क्रूरता के कारण आज ये अवशेष मात्र रह गयी है | अधिकाँश मूर्तिया खंडित कर दी गयी थी, जिन्हें कुछ संगठनों की सहायता से जीर्नोधारित किया जा रहा है |
हालाकिं कई प्रतिमाये तो आज भी अत्यंत चमकदार तथा मनोज्ञ है | ऐसी ही तीन प्रतिमाये जो शान्ति-कुन्थु-अरह तीर्थंकरों को समर्पित है, एक मंदिर में विराजमान है अत्यंत अतिशयकारी है और १३ फीट लम्बाई की है | माना जाता है की इन प्रतिमाओं की स्थापना में पाडाशाह नामक व्यापारी का योगदान था, जिसे पचराई से कुछ दूरी पर स्थित एक तालाब से पारस पत्थर की प्राप्ति हुई थी और उसका स्वप्न सत्य हुआ था | वह रांगे का व्यापार करता था और इसके लदान के लिए पाड़ों का उपयोग करता था, इसीलिये उसका नाम पाडाशाह पड़ा | उसने इस पारस पत्थर का उपयोग कर बुंदेलखंड क्षेत्र में कई मंदिरों का निर्माण कराया था और तत्कालीन चंदेल, तोमर वंशी राजाओं ने भी अनुमोदना की थी |
प्राकृतिक रूप से पचराई बहुत सुंदर स्थान है, जो कई तालाबों से घिरा है और पठारी भाग पर अवस्थित है | यह शिवपुरी जिला (म.प्र) में खानियाघाना नामक स्थान से १८ किमी है |
Tuesday, December 22, 2009
चांदपुर - जहाजपुर (उ.प्र) के ऐतिहासिक भग्नावशेष
तो आइये आज हम जाने चांदपुर - जहाजपुर के बारे में |
आप में से शायद ही किसी ने चांदपुर के भग्नावाशेशो के बारे में पढ़ा या सुना होगा, मुझे भी ज्ञात नहीं था , किन्तु जब मैं देवगढ जिला ललितपुर गया तो मुझे इस स्थान के बारे में कुछ आदिवासियों से पता चला | ये स्थल मेरी बुंदेलखंड तीर्थ यात्रा को और अधिक सार्थक बना गया | चलचित्रों के लिए यहाँ क्लिक करे |
मुझे इस स्थान पर जाने से लगभग सभी ने रोका क्योंकि यह एक कच्ची पगडण्डी पर मुख्य सड़क से ३ किमी की दूरी पर था जहाँ बीच में नाला भी पार करना पड़ता है, दूसरा वहां कोई भी देखरेख करने वाला भी नहीं है | कोई पुजारी आता है और पूजा करके वापस चला जाता है | हाँ ! गाँव के २- ४ बच्चे ज़रूर पास ही में खेलते नज़र आ जाते है | किन्तु मेरा निश्चय अटल होने से मैं नहीं रुका | मैं बड़ी मुश्किल से वहां पंहुचा क्योंकि कोई रास्ता बताने वाला भी नहीं था | आभारी हूँ सरकार का , जो सड़क तो नहीं बनवा पायी लेकिन एक बोर्ड तो लगा है मुख्या सड़क से मुड़ते हुए |
बिलकुल रेल की पटरियों के पास ही यह क्षेत्र अवस्थित है किन्तु आप इसे रेल से देख नहीं सकते , क्योंकि एक तो इसका पिछ्वारा है और दूसरा घनी झाड़ियाँ है | खेर जैसे तैसे पहुचे , लेकिन सत्य में वहां कोई नहीं था| बस शान्ति ही थी चारो और जिसे पटरियों से गुजरती रेलों की धराधर ही तोड़ती थी | सामने था एक युग पुराना इतिहास , कला
और संस्कृति के कुछ अवशेष जो उचित देखरेख के अभाव में या तो भग्न हो गए है या मूर्तिचोरो की बन आयी है |पिछले २५ वर्षो में क्षेत्र को जितना नुक्सान पंहुचा उतना तो शायद १००० वर्षो में भी नहीं हुआ था |
चांदपुर - जहाजपुर ललितपुर बीना रेल खंड पर धोर्रा स्टेशन से २ किमी की दूरी पर घने झाड़ियों वाले जंगल में फैला है |रेल लाइन का पूर्वी भाग चांदपुर तथा पश्चिमी भाग जहाजपुर नाम से जाना जाता है | यहाँ अनेको हिन्दू , जैन देवी देवताओं तथा तीर्थंकरो की मूर्तिया , कलात्मक पत्थर आदि जंगल में बिखरे पड़े है | देवस्थान विभाग ने सिवाय कोट बनाने के और कुछ नहीं किया है | मेरे लिए एक ही जगह जाना संभव हो पाया क्योंकि हमारी जीप ख़राब हो गयी थी |
वहां एक अहाते में तीन मंदिर थे जिसमे एक में श्री शांतिनाथ तीर्थंकर की ४.५ मीटर ऊंची प्रतिमा है जिसे आज भी गाँव वाले पूजते है और मानते है | अब वहां जैन तीर्थ कमिटी की और से विकास के कुछ प्रयास किये जा रहे है किन्तु स्थान सरकार का होने से कुछ ख़ास सुधार नहीं हुआ है | जब सरकार जीते जागते इंसानों की और ध्यान नहीं देती तो वो तो भ्ग्नाव्शेस है |वहां दो कमरे बनाये गए है निजी जामें पर ताकि कोई कम से कम १ - २ घंटे ही बिता सके यदि बिताना चाहे |
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आप में से शायद ही किसी ने चांदपुर के भग्नावाशेशो के बारे में पढ़ा या सुना होगा, मुझे भी ज्ञात नहीं था , किन्तु जब मैं देवगढ जिला ललितपुर गया तो मुझे इस स्थान के बारे में कुछ आदिवासियों से पता चला | ये स्थल मेरी बुंदेलखंड तीर्थ यात्रा को और अधिक सार्थक बना गया | चलचित्रों के लिए यहाँ क्लिक करे |
मुझे इस स्थान पर जाने से लगभग सभी ने रोका क्योंकि यह एक कच्ची पगडण्डी पर मुख्य सड़क से ३ किमी की दूरी पर था जहाँ बीच में नाला भी पार करना पड़ता है, दूसरा वहां कोई भी देखरेख करने वाला भी नहीं है | कोई पुजारी आता है और पूजा करके वापस चला जाता है | हाँ ! गाँव के २- ४ बच्चे ज़रूर पास ही में खेलते नज़र आ जाते है | किन्तु मेरा निश्चय अटल होने से मैं नहीं रुका | मैं बड़ी मुश्किल से वहां पंहुचा क्योंकि कोई रास्ता बताने वाला भी नहीं था | आभारी हूँ सरकार का , जो सड़क तो नहीं बनवा पायी लेकिन एक बोर्ड तो लगा है मुख्या सड़क से मुड़ते हुए |
बिलकुल रेल की पटरियों के पास ही यह क्षेत्र अवस्थित है किन्तु आप इसे रेल से देख नहीं सकते , क्योंकि एक तो इसका पिछ्वारा है और दूसरा घनी झाड़ियाँ है | खेर जैसे तैसे पहुचे , लेकिन सत्य में वहां कोई नहीं था| बस शान्ति ही थी चारो और जिसे पटरियों से गुजरती रेलों की धराधर ही तोड़ती थी | सामने था एक युग पुराना इतिहास , कला
और संस्कृति के कुछ अवशेष जो उचित देखरेख के अभाव में या तो भग्न हो गए है या मूर्तिचोरो की बन आयी है |पिछले २५ वर्षो में क्षेत्र को जितना नुक्सान पंहुचा उतना तो शायद १००० वर्षो में भी नहीं हुआ था |
चांदपुर - जहाजपुर ललितपुर बीना रेल खंड पर धोर्रा स्टेशन से २ किमी की दूरी पर घने झाड़ियों वाले जंगल में फैला है |रेल लाइन का पूर्वी भाग चांदपुर तथा पश्चिमी भाग जहाजपुर नाम से जाना जाता है | यहाँ अनेको हिन्दू , जैन देवी देवताओं तथा तीर्थंकरो की मूर्तिया , कलात्मक पत्थर आदि जंगल में बिखरे पड़े है | देवस्थान विभाग ने सिवाय कोट बनाने के और कुछ नहीं किया है | मेरे लिए एक ही जगह जाना संभव हो पाया क्योंकि हमारी जीप ख़राब हो गयी थी |
वहां एक अहाते में तीन मंदिर थे जिसमे एक में श्री शांतिनाथ तीर्थंकर की ४.५ मीटर ऊंची प्रतिमा है जिसे आज भी गाँव वाले पूजते है और मानते है | अब वहां जैन तीर्थ कमिटी की और से विकास के कुछ प्रयास किये जा रहे है किन्तु स्थान सरकार का होने से कुछ ख़ास सुधार नहीं हुआ है | जब सरकार जीते जागते इंसानों की और ध्यान नहीं देती तो वो तो भ्ग्नाव्शेस है |वहां दो कमरे बनाये गए है निजी जामें पर ताकि कोई कम से कम १ - २ घंटे ही बिता सके यदि बिताना चाहे |
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Monday, December 14, 2009
सोनागिरी की पवित्र पहाड़ी : दतियाँ (मध्य प्रदेश)
तो आज प्रस्तुत है पवित्र तीर्थ सोनागिरी के बारे में -
सोनागिरी, जिला दतियाँ (म.प्र.) में स्थित एक पवित्र स्थान है जो दतियाँ से मात्र १५ किमी की दूरी पर है| यहाँ का मुख्य आकर्षण एक पहाड़ी है, जो स्वर्नागिरी भी कही जाती है और पूर्ण प्राकृतिक तथा रम्य वातावरण में अवस्थित है |
चलचित्रों के लिए यहाँ क्लिक करे |
पहाड़ी पर छोटे बड़े कुल १०८ मंदिर है जो जैन तीर्थंकरो से सम्बंधित है | पहाड़ी की चढाई के साथ ही मंदिर शुरू हो जाते है और जब तक पुनः दूसरी और से नीचे नहीं आ जाते, तब तक कुल १०८ मंदिरों के दर्शन होते है | आधिकांश मंदिर सल्तनत एवं मुग़ल शेल्ली में निर्मित है |कुछ मंदिरों में तो १००० वर्ष से प्राचीन प्रतिमाएं भी विद्यमान है | मंदिरों तथा प्रतिमाओं की सुन्दरता तथा कला के बारे में तो क्या कहना ? समस्त वातावरण, नैसर्गिक सौंदर्य और मंदिरों के गुम्बद और मीनारे मन मोह लेती है | मंदिर ५७ को एक चमत्कारी मंदिर माना जाता है, यहाँ समस्त सम्प्रदायों के लोग दर्शन करने आते है |
यह पवित्र स्थान संतो तथा साधको के मध्य प्राचीनकाल से ही लोकप्रिय रहा है और अनेको ने यहीं से तप करके निर्वाण पाया है |
कुछ फिल्मो के गानों में भी यहाँ का दृश्य दिखाया गया है| पहाड़ी के अतिरिक्त नीचे तलहटी में भी कुल २६ मंदिर और है | कुल मिलाकर यदि इसे मंदिर नगरी कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी|
सोनागिरी के बारे में और अधिक जानने के लिए यहाँ क्लिक करे |
किसी और तीर्थ के चलचित्र अगले अंक में ...
सोनागिरी, जिला दतियाँ (म.प्र.) में स्थित एक पवित्र स्थान है जो दतियाँ से मात्र १५ किमी की दूरी पर है| यहाँ का मुख्य आकर्षण एक पहाड़ी है, जो स्वर्नागिरी भी कही जाती है और पूर्ण प्राकृतिक तथा रम्य वातावरण में अवस्थित है |
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पहाड़ी पर छोटे बड़े कुल १०८ मंदिर है जो जैन तीर्थंकरो से सम्बंधित है | पहाड़ी की चढाई के साथ ही मंदिर शुरू हो जाते है और जब तक पुनः दूसरी और से नीचे नहीं आ जाते, तब तक कुल १०८ मंदिरों के दर्शन होते है | आधिकांश मंदिर सल्तनत एवं मुग़ल शेल्ली में निर्मित है |कुछ मंदिरों में तो १००० वर्ष से प्राचीन प्रतिमाएं भी विद्यमान है | मंदिरों तथा प्रतिमाओं की सुन्दरता तथा कला के बारे में तो क्या कहना ? समस्त वातावरण, नैसर्गिक सौंदर्य और मंदिरों के गुम्बद और मीनारे मन मोह लेती है | मंदिर ५७ को एक चमत्कारी मंदिर माना जाता है, यहाँ समस्त सम्प्रदायों के लोग दर्शन करने आते है |
यह पवित्र स्थान संतो तथा साधको के मध्य प्राचीनकाल से ही लोकप्रिय रहा है और अनेको ने यहीं से तप करके निर्वाण पाया है |
कुछ फिल्मो के गानों में भी यहाँ का दृश्य दिखाया गया है| पहाड़ी के अतिरिक्त नीचे तलहटी में भी कुल २६ मंदिर और है | कुल मिलाकर यदि इसे मंदिर नगरी कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी|
सोनागिरी के बारे में और अधिक जानने के लिए यहाँ क्लिक करे |
किसी और तीर्थ के चलचित्र अगले अंक में ...
Saturday, December 12, 2009
पपौरा के गगनचुम्बी कलात्मक मन्दिर तथा मूर्तियाँ
तो आज पेश है बुंदेलखंड का एक महत्वपूर्ण स्थल पपौरा तीर्थ|
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पपौरा ग्राम टीकमगढ़ म. प्र. के पूर्व में 5 किमी की दूरी पर 3 किमी की एक विशाल किले की दीवार से घिरा घने वृक्षों की श्रृंखला के केंद्र में एक प्राकृतिक स्थान पर है| यहाँ कुल 108 समृद्ध कलात्मक मंदिर है जो सल्तनत या मुग़ल शेल्ली में निर्मित है | यहाँ उच्च आकर्षक गुम्बद है. तहखाने और मानस्तंभ है जो इस जगह को अधिक आकर्षक और रुचिकर बनाते हैं| यहाँ के मदिरो की कला और मूर्तियों को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है और एक अजीब सी शांति मिलती है, भीड़ से दूर , रोज़ की आपाधापी वाले जीवन से दूर |
पम्पापुर पपौरा का दूसरा नाम है, जिसके पास एक विशाल सघन वन जिसे रामन्ना कहते हैं मौजूद है और यह माना जाता है कि श्री राम चंद्रजी ने जंगलों में अपने प्रवास के दौरान यहां कुछ समय बिताया था.
ये मंदिर 800 से अधिक वर्ष पुराना है। यहाँ दो भूमिगत भोयरे भी है|
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पपौरा ग्राम टीकमगढ़ म. प्र. के पूर्व में 5 किमी की दूरी पर 3 किमी की एक विशाल किले की दीवार से घिरा घने वृक्षों की श्रृंखला के केंद्र में एक प्राकृतिक स्थान पर है| यहाँ कुल 108 समृद्ध कलात्मक मंदिर है जो सल्तनत या मुग़ल शेल्ली में निर्मित है | यहाँ उच्च आकर्षक गुम्बद है. तहखाने और मानस्तंभ है जो इस जगह को अधिक आकर्षक और रुचिकर बनाते हैं| यहाँ के मदिरो की कला और मूर्तियों को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है और एक अजीब सी शांति मिलती है, भीड़ से दूर , रोज़ की आपाधापी वाले जीवन से दूर |
पम्पापुर पपौरा का दूसरा नाम है, जिसके पास एक विशाल सघन वन जिसे रामन्ना कहते हैं मौजूद है और यह माना जाता है कि श्री राम चंद्रजी ने जंगलों में अपने प्रवास के दौरान यहां कुछ समय बिताया था.
ये मंदिर 800 से अधिक वर्ष पुराना है। यहाँ दो भूमिगत भोयरे भी है|
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Thursday, December 10, 2009
ग्वालियर: एक पत्थर की बावड़ी- शैल कृत जैन गुफाएं
तो अगली कड़ी के रूप में आज प्रस्तुत है ग्वालियर की जैन गुफाएं |
चलचित्रों के लिए यहाँ क्लिक करे |
यहाँ कुल २६ गुफाये है , जिनमे तीर्थंकरो की विशाल तथा छोटी प्रतिमाये है | ये गुफाये ग्वालियर किले के पीछे की और पहाड़ में ही बनी है (गोपाचल पर्वत ) और गुफा १ के ऊपर बावड़ी होने के कारण "एक पत्थर की बावड़ी " नाम से जानी जाती है |यहाँ के अभिलेखों में राजा डूंगर सिंह (१४२५-५९ इसवी ) एवं कीर्ति सिंह का नाम आता है | माना जाता है की ये गुफाये ६०० से ७०० वर्ष प्राचीन है |
इन मूर्तियों की विशालता, सुन्दरता और शिल्पकारों, मूर्तिकारों की कला देखकर मन गदगद हो जाता है , स्वयं ही श्रधा से भर उठता है | परन्तु विडम्बना यही है की इन प्रतिमाओ के सर , हाथ या पैर आतताइयों (लड़ाको) ने दूषित राजनीती तथा द्वेष वश काट लिए थे (300 या ४०० वर्ष पहले) | मात्र एक प्रतिमा ही ऐसी है जो पूर्ण है ४२ फीट ऊंची पद्मासन मुद्रा में |
फिर भी धन्य है वे लोग , वे राजा जिन्होंने जान दे दी , किंतु जीते जी संस्कृति की रक्षा की | आज पुनः इनके संरक्षण की महती आवश्यकता है, आवश्यकता है इस धरोहर और संस्कृतिक धार्मिक स्थल को गुंडा, आवारा तत्वों से बचाने की और इस दिशा में सरकार तथा जैन समाज दोनों की और से प्रयास जारी है |
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यहाँ कुल २६ गुफाये है , जिनमे तीर्थंकरो की विशाल तथा छोटी प्रतिमाये है | ये गुफाये ग्वालियर किले के पीछे की और पहाड़ में ही बनी है (गोपाचल पर्वत ) और गुफा १ के ऊपर बावड़ी होने के कारण "एक पत्थर की बावड़ी " नाम से जानी जाती है |यहाँ के अभिलेखों में राजा डूंगर सिंह (१४२५-५९ इसवी ) एवं कीर्ति सिंह का नाम आता है | माना जाता है की ये गुफाये ६०० से ७०० वर्ष प्राचीन है |
इन मूर्तियों की विशालता, सुन्दरता और शिल्पकारों, मूर्तिकारों की कला देखकर मन गदगद हो जाता है , स्वयं ही श्रधा से भर उठता है | परन्तु विडम्बना यही है की इन प्रतिमाओ के सर , हाथ या पैर आतताइयों (लड़ाको) ने दूषित राजनीती तथा द्वेष वश काट लिए थे (300 या ४०० वर्ष पहले) | मात्र एक प्रतिमा ही ऐसी है जो पूर्ण है ४२ फीट ऊंची पद्मासन मुद्रा में |
फिर भी धन्य है वे लोग , वे राजा जिन्होंने जान दे दी , किंतु जीते जी संस्कृति की रक्षा की | आज पुनः इनके संरक्षण की महती आवश्यकता है, आवश्यकता है इस धरोहर और संस्कृतिक धार्मिक स्थल को गुंडा, आवारा तत्वों से बचाने की और इस दिशा में सरकार तथा जैन समाज दोनों की और से प्रयास जारी है |
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